अदृश्य गाँव का रहस्य भाग 1
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यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक नहीं है, और सत्य कहकर मैं फँसना नहीं चाहता...किसी को वचन दिया है। अतः इसे आधा सच और आधा झूठ मान सकते हैं।
जिस अदृश्य गाँव की यह कहानी है, वहाँ कोई भी जा नहीं सकता इसलिए कोई मुझपर केस वेस भी नहीं कर सकता।
मेरा एक मित्र संजू उस रहस्यमयी गाँव में ही रहता था , उसी ने सुनाई थी यह रहस्य भरी कहानी...।
बात कोई ज्यादा पुरानी भी नहीं है किंतु मैं जितना चाहूँगा उतना ही सुनाऊँगा...ज्यादा कुछ पूछियेगा नहीं। रहस्य बड़ा है, कहानी भी डरावनी तो नहीं पर आश्चर्यचकित करने वाली अवश्य है।
कहीं कोई अनहोनी न घट जाय। बजरंगबली का नाम लेकर शुरू करते हैं।
अनहोनी होती नहीं, होनी हो सो हो।
तैयार हैं तो सुनिए...।
सुनिए क्या, पढ़िए...
एक गाँव था...पूर्वी उत्तरप्रदेश में, बड़ा ही रहस्यमयी।
रहस्य कैसा...?
बताते हैं, बताते हैं।
विंध्याचल पहाड़ियों के उस पार की तलहटी में बसा था यह सुन्दर सा गाँव अलोपपुर।
यथा नाम तथा गुण। दरअसल दुनिया के नक़्शे पर ऐसा कोई गाँव था ही नहीं। गूगल मैप पर भी किसी ने उसे देखा नहीं। मेरा मित्र बताता है कि इंटरनेट और जीपीएस लोकेशन फोन लेकर वहाँ पहुँचते ही अपनी सुध खो बैठते हैं।
असल में वहाँ रहने वाले डेढ़ दो सौ लोग इस संसार की जनसँख्या में आते ही नहीं थे।
गंगा नदी की एक छोटी सी धारा नहर के रूप में उस गाँव से होकर गुजरती थी जो समृद्ध बनाती थी उसे और खूबसूरती भी प्रदान करती थी।
घने पेड़ों से आच्छादित हरा-भरा वनप्रदेश सा यह गाँव वहां बसने वाले ग्रामीणों के लिए बहुत खास था, क्योंकि यह गाँव अदृश्य था।
जी हाँ... कभी किसी ऋषि के शाप या यह कहें कि वरदान के कारण यह पूरा गाँव ही अदृश्य था। बाहरी दुनिया से कटा हुआ।
गप्प नहीं है ये...सच है, कसम से...।
यहाँ के निवासियों ने शपथ ली थी कि इस रहस्य को गांव से बाहर कभी किसी को नहीं बताया जाएगा... पर एक बार यह शपथ टूटी तो यह कहानी बाहर आई है। आप सब पाठकों को कसम है, किसी से बताना नहीं।
वे सभी गाँव वाले जब गाँव की सीमा से बाहर आते तो दिखाई देने लगते थे और वापस जाते ही फिर से गायब हो जाते। गाँव का सौंदर्य भी शायद इसी कारण अभी तक बचा हुआ था। कुल जमा चालीस पचास परिवार ही उस ग्राम में रहते थे, बड़े मिलनसार, मेहनती, विनम्र और एक दूसरे का दुःख सुख बाँटने वाले।
उस गाँव में सैकड़ों गाय-बैल, बकरियाँ और घोड़े तो थे ही...जमीन भी बड़ी उपजाऊ थी...सोने सी शुद्ध फसल और भरपूर फल-सब्जियां होती थीं, जो गाँव के लिए आवश्यकता से कई गुना अधिक थीं।
गांव के ही दस बारह व्यक्ति वहाँ से बाहर निकल कर मीरजापुर तरह आसपास के शहर में ले जाकर बची हुई फसलें और फल-सब्जियां और दूध बेचते और कपडे तथा अन्य शहरी संसाधन अपने गाँव बैलगाड़ियों पर लादकर ले आते थे।
बाहरी दुनिया के लोगों और किसी भी सरकारी रिकार्ड में इस गाँव का कोई खाता नहीं था।
गाँव वालों को कभी इसकी जरूरत भी नहीं लगती थी। गाँव में एक ही शिक्षा का संस्थान था, कई बीघा में फैला एक बड़ा सा गुरुकुल। उसमें सात साधु रहते थे, कहते हैं कि कई पीढ़ियों से उनकी उम्र को बढ़ते किसी ने देखा नहीं था। वे ही गाँव भर की शिक्षा का जिम्मा संभाले हुए थे।
पूरे गाँव में बिजली नहीं थी, ब्रह्ममुहूर्त में उठकर सूर्य के प्रकाश में ही वे सब अपना सब कार्य पूरा कर लेते थे। प्रतिदिन वे सब सन्ध्या के पूर्व ही भोजन कर लेते और फिर गाँव के ही एक बड़े वटवृक्ष के नीचे लालटेन या तेल के छोटे-बड़े दीपक के मद्धम उजियारे में, तो चाँदनी रात में ऐसे ही चौपाल जम जाती। बड़े बुजुर्ग और ज्ञानी गुरुकुल के वे सात साधु कथा कहानियाँ सुनाते और सभी ग्रामवासी झूमते हुए उन कथाओं का रसास्वादन करते।
खूब आनंद से दिन बीत रहे थे। दैवीय कृपा, शुद्ध आहार, संतुलित जीवन होने और मानसिक चिंता के न होने से गाँव में कभी कोई हारी-बीमारी नहीं होती थी और न ही कभी कीड़ी की अकाल मृत्यु होते सुना गया था।
आज जैसे हम सब घर में अपना आइसोलेशन पीरियड व्यतीत कर रहे हैं न... उनका सारा जीवन ही वैसे उस गाँव में बीतता था। किसी भी व्यक्ति को न तो धन दौलत, विलासिता के साधन, बिजली, बड़े मकान और गाड़ियों की आवश्यकता अनुभव होती थी न ही कोई प्रयास वे सब इन वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए करना चाहते थे।
गाँव के अदृश्य होने के कारण ही शहर का जहरीला विकास अभी यहाँ तक पहुँचा नहीं था। गाँव के बड़े बूढ़े कहते थे...हम सब जब तक इस गाँव में हैं, सुरक्षित हैं।
सच ही तो है। घर में ही आदमी सबसे अधिक सुरक्षित होता है।
ऐसे ही समय एक घटना घटी--
गाँव में ग्रीष्म ऋतु के आरंभ होने के पूर्व ही चैत्र मास के आरंभ में गुरुकुल की परीक्षाएं खत्म हुई थी तभी गाँव वालों ने सुना कि शहर में...पूरे देश-दुनिया में कोई बड़ी भयंकर बीमारी फ़ैल गई है...कोई वायरस है जो लाखों लोगों की जान ले रहा है।
संध्या की चौपाल में आज भी सातो साधु उपस्थित थे। उन्होंने बड़ी गंभीर मुद्रा में कहा-
"यह तय यह किया गया कि अब अगले कुछ दिनों तक इस गाँव से बाहर कोई भी नहीं जाएगा।
बाहर से तो खैर वैसे भी कोई आ ही नहीं सकता इस गाँव में। खाने की सामग्री भरपूर है, अब कुछ दिनों तक हम सब गाँव में रहकर ही मेहनत करेंगे।
गेंहूँ और चने की फसल की कटाई का कार्य सभी पुरुष पूरा करेंगे। अन्न का भंडार सहेजने का कार्य गाँव की स्त्रियाँ करें। बड़ी अवस्था के स्त्री पुरुष और बच्चे मिलकर अपना वन क्षेत्र और अधिक बढ़ाने के लिए एक महीने में एक लाख फलदार, छायादार और आयुर्वेदिक औषधियों से युक्त वृक्षों का रोपण का बीड़ा उठाएं जो एक वर्ष तक उन पौधों, वृक्षों का उसका ध्यान भी रखेंगे। अब एक विशेष कार्य और है।" वह साधु कुछ क्षण रुके और सबकी ओर देखा। कहा--
" कुछ लोग आगे आकर पुराने सूखे कुएँ की खुदाई का कार्य शुरू करेंगे। आने वाली गर्मी में पानी की कमी नहीं होगी।"
" अच्छा! तो कौन करेगा इस पुराने कुँए की खुदाई का काम ?" उन सातों में से सबसे लंबी दाढ़ी वाले उस एक साधु ने पूछा।
" हम गुरूजी...."
चार बच्चे इस कार्य के लिए आगे आ गए। चारो आपस में गहरे दोस्त थे।
असली कहानी अब आरंभ हुई।
राजू और मुन्ना..संजू और जीवन। उम्र में उनके यही कोई चार पाँच साल का अंतर था पर मित्रता में कोई भेद कभी दीखता न था।
वे चारो तैयार हो गए उस पुराने सूखे कुएँ की खुदाई के लिए।
"अरे...तुम चारो अभी बच्चे ही तो हो...इस गर्मी में ऐसा काम..."
"नहीं, नहीं...हम ही करेंगे..." वे चारो लगभग एक साथ ही चिल्लाए।
ठीक है...इस कार्य में नट्टू पहलवान और बद्री हलवाई तुम्हारी सहायता करेंगे। किसी को और कुछ भी पूछना है? यह कार्य आसान नहीं होगा, बहुत सी बाधाएं भी आएंगी।"
उस लंबी दाढ़ी वाले साधु ने फिर से पूछा।
" हम पूरी तरह से तैयार हैं।"
बद्री और नट्टू ने साधुओं को निश्चिन्त करते हुए नमस्कार किया।